शहरीकरण की वजह से संयुक्त परिवार एवं समुदाय से संबंधित पारंपरिक बंधनों, सामाजिक वर्जनाओं, आत्म-संयम एवं नियंत्रित अनुशासन अब धीरे-धीरे विलुप्त होते जा रहे है, जिससे नशे की लत में वृद्धि एक गंभीर चिंता का विषय बनता जा रहा है। मद्दपान एवं नशीली दवाओं का सेवन भारत में एक गंभीर सामाजिक – आर्थिक समस्या के रूप में उभर कर सामने आया है। दुनिया के दो सबसे बड़े अवैध नशीली दवाओं के उत्पादन क्षेत्र में स्थित भारत काफी समय से पारगमन देश बना हुआ है जिसकी वजह से इसे देश में और देश से बाहर नशीली दवाओं की अवैध तस्करी की समस्या का सामना करना पड़ रहा है।
मादक पदार्थों में जहां कोका पत्ती, भाँग, अफीम, पोस्ता तथा अन्य विनिर्मित वस्तुएं शामिल हैं वही मन: प्रभावी पदार्थों का मतलब ऐसा कोई पदार्थ, प्राकृतिक या कृत्रिम या अन्य कोई प्राकृतिक पदार्थ या कोई नमक या ऐसे पदार्थों का निर्माण मन: प्रभावी पदार्थों की सूची में आते है जो स्वापक औषधि और मन: प्रभावी पदार्थ (एनडीपीएस) अधिनियम, 1985 के तहत निर्धारित किए गए हैं।
स्वापक औषधि एवं मन: प्रभावी पदार्थों के कई चिकित्सकीय एवं वैज्ञानिक उपयोग हैं। हालांकि इनका भी दुरुपयोग हो सकता है और तस्करी की जा सकती है। प्राकृतिक स्वापक औषधि जैसे मॉर्फीन और कोडिन जो अफीम से बनाए जाते है उनका उपयोग चिकित्सा में किया जाता है। इस प्रकार प्राकृतिक स्वापक औषधियों का निर्माण अप्रत्यक्ष रूप से अफीम की मांग और उस क्षेत्र को प्रभावित करता है जिसमें किसानों को अफीम की खेती की स्वीकृति होती है। भारत उन चुनिंदा देशों में शामिल है जिसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अफीम की खेती करने की मान्यता है। साथ ही संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक परिषद के एक के बाद एक प्रस्ताव इस बात को प्रदर्शित करते है कि भारत (उत्पादन करने वाले अन्य देश) मांग और आपूर्ति के बीच हमेशा संतुलन बनाए रखे। इस प्रकार एक और जहां भारत पर अफीम उत्पादन करने वाले अन्य देशों के तरह यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी है कि अफीम एवं अफीम से बनाए जाने वाले मादक पदार्थों की उचित आपूर्ति हो साथ ही यह भी जिम्मेदारी है कि इनका अत्यधिक संचय न किया जाए।
हमारे संविधान के अनुच्छेद 47 में उल्लेख है कि राज्य स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद नशीले पेय और दवाओं को चिकित्सकीय उद्देश्यों को छोड़कर इनकी खपत को निषेध करने का प्रयास करेगा। भारत तीन संयुक्त राष्ट्र सम्मेलनों - (1) नारकोटिक्स (स्वापक) ड्रग्स, 1961 पर सम्मेलन (2) साइकोट्रोपिक्स (मन:प्रभावी) पदार्थ, 1971 पर सम्मेलन (3) नारकोटिक्स ड्रग्स एवं साइकोट्रोपिक्स पदार्थ, 1988 के अवैध आगमन के विरुद्ध सम्मेलनों पर हस्ताक्षर करने वाला एक देश है। इस प्रकार भारत पर भी नशीली दवाओं के दुरुपयोग को रोकने का अंतर्राष्ट्रीय दायित्व है।
नारकोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक्स सब्स्टांसिज़ (एनडीपीएस) अधिनियम (स्वापक औषधि एवं मन:प्रभावी पदार्थ) 1985 को इन तीन संयुक्त राष्ट्र नशीली दवा सम्मेलनों के अंतर्गत भारत के दायित्वों के साथ-साथ संविधान के अनुच्छेद 47 को ध्यान में रखते हुए तैयार किया गया था। यह अधिनियम नारकोटिक्स दवाओं, साइकोट्रोपिक्स पदार्थों के चिकित्सा या वैज्ञानिक प्रयोजनों, विनिर्माण, उत्पादन, व्यापार आदि के अलावा इनके उपयोग को प्रतिबंधित करता है। इस प्रकार सरकार की नीति इनके चिकित्सकीय और वैज्ञानिक उपयोग को प्रोत्साहन देने की तथा इनके गैर-कानूनी स्रोतों की ओर रुख करने, गैर-कानूनी प्रवेश और दुरुपयोग को रोकने की है। एनडीपीएस अधिनियम वित्त मंत्रालय राजस्व विभाग द्वारा प्रशासित है तथापि एल्कोहल एवं पदार्थ दुरुपयोग रोकने संबंधी मामलों से सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय निपटता है। मंत्रालय इस क्षेत्र में काम कर रहा है तथा गैर-सरकारी संगठनों की मदद करता है। स्वास्थ्य मंत्रालय जो सभी स्वास्थ्य मामलों के प्रति जिम्मेदार है- पूरे देश में सरकारी अस्पतालों में अनेक नशामुक्ति केन्द्रों को चलाता है। गृह मंत्रालय के अधीन नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (स्वापक नियंत्रण ब्यूरो) एनडीपीएस अधिनियम के अधीन विभिन्न विभागों से तालमेल रखता है। राज्य सरकारों के भी अपने स्वास्थ्य विभाग हैं, जिनके सामाजिक कल्याण विभाग नशीली दवाओं की मांग घटाने से संबंधित गतिविधियों के अपने-अपने कार्यक्रम हैं।
अफीम और भाँग की अवैध खेती एनडीपीएस अधिनियम के अधीन अपराध है। सिन्थेटिक और अर्धसिन्थेटिक दवाएं अवैध रूप में गुप्त प्रयोगशालाओं में (सामान्यतौर पर जिन्हें कबीले की प्रयोगशालाओं के रूप में जाना जाता है।) तैयार की जाती हैं। भारत में नारकोटिक्स दवाओं और साइकोट्रोपिक्स पदार्थों से युक्त अवैध दवाओं को दुरुपयोग की ओर मोड़ने की महत्वपूर्ण समस्या हो गई। कोडीन, बुपरेनोर्फिन, डाइजेपाम, एलपराजोलम युक्त दवाओं को तैयार करने में आमतौर पर दुरुपयोग होता है।
नशीली दवाओं के दुरुपयोग में दो मुख्य घटक इस प्रकार हैं - नशीली दवा की उपलब्धता और इनके दुरुपयोग में मनोवैज्ञानिक - सामाजिक स्थिति का परिणाम। परम्परागत एवं अर्धसिन्थेटिक दोनों दवाओं का दुरुपयोग होता है। नस में जहरीली दवाओं के उपयोग और इससे एचआईवी /एड्स के फैलने से समस्या में नया आयाम जुड़ गया है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1998 में अपने बीसवें विशेष सत्र में नशीली दवा नियंत्रण नीति को एक अनिवार्य स्तंभ को मांग घटाने के रूप में स्वीकार कर लिया है। इस प्रकार आपूर्ति और मांग घटाने पर बराबर जोर दिया गया है। मांग घटाने के दो घटक हैं - नशीली दवाओं के उपयोग करने वालों का इलाज तथा समाज को नशा करने से रोकने के लिए योग्य बनाने तथा इलाज के बाद नशेडि़यों का पुनर्वास करना है। इस प्रकार नशीली दवाओं का दुरुपयोग मनोवैज्ञानिक, सामाजिक चिकित्सा समस्या है, जिस पर चिकित्सकीय हस्तक्षेप और समुदाय आधारित हस्तक्षेप दोनों की ही आवश्यकता है। इसलिए केन्द्र सरकार ने मांग को घटाने की तीन आयामी नीति बनाई है, जो इस प्रकार हैं-
- नशा लेने से होने वाले नुकसान के बारे में लोगों को जागरूक तथा शिक्षित करना।
-नशा करने वालों को परामर्श देना जिससे उन्हे प्रेरणा मिले, इलाज के जरिए उनकी देखभाल करना तथा जो इससे उबर चुके हैं समाज में उनके लिए जगह बनाना।
- सेवा प्रदाताओं का एक शिक्षित कैडर बनाने के लिए स्वयं सेवकों को नशे के दुरूपयोग के संदर्भ में रोकथाम/पुनर्वास संबंधी प्रशिक्षिण देना ।
इलाज से ही व्यक्ति को नशे के सेवन से मुक्त किया जा सकता है। भारत में इसके लिए दो सूत्रीय रणनीति है-1) सरकारी अस्पतालों में नशा मुक्ति केंद्र चलाना तथा 2) इस कोशिश में लगे स्वयं सेवी संस्थानों को सहयोग करना। भारत सरकार का स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय देश भर में विभिन्न सरकारी अस्पतालों में अनेक नशा मुक्ति केंद्र चला रहा है। सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय 1985-86 से निषेध और नशीली दवाओं के दुरूपयोग की रोकथाम संबंधी योजना अमल में ला रहा है। इस योजना का उद्देश्य स्वैच्छिक और अन्य संगठनों के ज़रिए जागरूकता पैदा करना, परामर्श, नशा लेने वालों का इलाज और पुनर्वास सहित व्यापक सेवाएं उपलब्ध कराना है। शराब की मांग और उसका सेवन घटाने के लिए शिक्षा कार्यक्रमों और नशा करने वाले के व्यक्तित्व को उबारने पर ध्यान देना होगा। वर्तमान में इस योजना के तहत सरकार, स्वयं सेवी संगठनों द्वारा चलाए जा रहे नशा-मुक्ति-सह-पुनर्वास केंद्रों, नशा मुक्ति शिविरों और परामर्श तथा जागरूकता केंद्रों को समर्थन दे रही है। सरकार इन केंद्रों द्वारा दी जा रही सेवाओं पर होने वाले खर्चों का अधिकांश हिस्सा वहन करती है।
हालांकि नशा करने वालों को इसके सेवन से जो 'खुशी' पहुंचती है वो क्षणिक भर की होती है। लेकिन स्वास्थ्य और वित्तीय हिसाब से देखें तो इसका बोझ समाज पर पड़ता है लेकिन अवैध रूप से नशीले पदार्थों की आपूर्ति तथा तस्करी करने वालों को बहुत लाभ पहुंचता है। अल्पकालिक आर्थिक लाभ के लिए इनका उत्पादन और तस्करी करने वाले देशों को सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर इसका खामियाज़ा उठाना पड़ता है। हालांकि बच्चों के व्यक्तित्व, मूल्यों और व्यवहार को सही रूप देने में परिवार भी काफी अधिक प्रभाव डालते हैं। साथ ही नशे से मुक्ति में दोस्तों वगैरह का समूह भी काफी अधिक प्रभाव डाल सकते हैं। माता-पिता जब अपनी वास्तविक भूमिका नहीं निभाते तब बच्चों पर गलत संगत का प्रभाव और बढ़ जाता है। पारिवारिक घटक जो नशीले पदार्थों के दुरूपयोग में धकेल या उसे बढ़ा सकते हैं उसमें लम्बे समय तक या किसी अन्य तरीके से माता-पिता का साथ न होना, बहुत ज्यादा सख्ती, जज्बात को समझ नहीं पाना और माता-पिता द्वारा ही नशा सेवन करना शामिल है। परिवार की कम या अनियमित आय होने के कारण परिवार में अस्थिरता रहना, बेरोज़गारी के कारण परिवार पर दबाव रहने से भी नशे की आदत में पड़ सकते हैं। जहां परिवार नशे संबंधी समस्याओं का कारण हो सकते है वहीं रोकथाम और इलाज में यह ताकत भी बन सकती है। अधिकांश परिवारों में महिलाएं ही अपने परिवार की देखभाल करती हैं तथा वह युवाओं को इस संदर्भ में शिक्षित करने तथा उनकी स्वास्थ्य संबंधी देखभाल में मुख्य भूमिका भी निभा सकती हैं। नशे की रोकथाम और उनका सेवन करने वालों के इलाज में महिलाओं के प्रभावी इस्तेमाल से नशीले पदार्थों की आपूर्ति और मांग को कम किया जा सकता है। वास्तव में परिवार के किसी सदस्य को नशीले पदार्थों का शिकार होने से रोकने में, पूरे परिवार का हित है और ऐसा करके वे सरकार और सामुदायिक रोकथाम कार्यक्रमों का महत्वपूर्ण हिस्सा बन सकते हैं।
26 जून, दुनियाभर में नशीले पदार्थों के दुरूपयोग तथा अवैध व्यापार के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जाता है।