दक्षिण एशिया के सांप्रदायिक समीकरण

सार्क देशों में भारत अपने आकार, जनसंख्या और सकल घरेलू उत्पाद के नजरिये से सबसे बड़ा देश है। इसके अलावा इसकी एक और विशेषता है, जो महत्वपूर्ण है। भारत, दक्षिण एशिया का अकेला देश है, जिसने कभी अपनी पहचान को किसी एक धर्म से नहीं जोड़ा। बौद्ध धर्म श्रीलंका और भूटान का आधिकारिक राष्ट्रीय धर्म है। पाकिस्तान इस्लामी गणतंत्र है। सुन्नी इस्लाम मालदीव का आधिकारिक धर्म है। सन 2008 तक नेपाल हिंदू राष्ट्र था। बांग्लादेश का जन्म सन 1971 में एक धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र की तरह हुआ था, लेकिन 1980 के दशक में जब जनरल इरशाद इसके राष्ट्रपति थे, तब संविधान में संशोधन करके इस्लाम को प्राथमिकता दी गई। भारत ने खुद को किसी एक धर्म से नहीं जोड़ा, लेकिन यहां हमारी कथनी और करनी में कुछ फर्क है। धर्मनिरपेक्ष संविधान के बावजूद अक्सर हमारे यहां धार्मिक बहुसंख्यवाद ने अपना आक्रामक चेहरा दिखाया है। 1950 के दशक में आमतौर पर सांप्रदायिक सद्भाव बना रहा, जो जबलपुर में एक बड़े दंगे से टूटा। 1960 और 70 के दशक में उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात और महाराष्ट्र में सांप्रदायिक हिंसा की कई घटनाएं हुईं। 1984 में हिंदू भीड़ ने दिल्ली और अन्य उत्तर भारतीय शहरों में सिखों के खिलाफ भारी हिंसा की। 1990 के दशक में इस्लामी कट्टरपंथियों ने कश्मीर घाटी से ज्यादातर हिंदू नागरिकों को खदेड़ दिया।

ये घटनाएं वीभत्स थीं, लेकिन इनसे बड़ी कीमत 1980 और 1990 के दशक में राम जन्मभूमि आंदोलन की चुकानी पड़ी है। साल 2002 में हिंदू कट्टरपंथियों ने गुजरात में एक हजार से ज्यादा मुसलमानों की हत्या कर दी और लाखों को बेघर कर दिया। यह स्थिति आसानी से बदलने वाली नहीं है। हिंदू दक्षिणपंथ के प्रभाव की वजह से भारतीय राजनीति और समाज का चरित्र बदल रहा है और वह बहुलता और सहिष्णुता से ज्यादा दूर जा रहा है। धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति रवैये के मामले में भारत का रिकॉर्ड मिला-जुला है, मगर पाकिस्तान के मुकाबले यह बहुत बेहतर है। भारत में राजसत्ता और धर्म के बीच संविधान में दूरी बनाए रखी गई है, लेकिन पाकिस्तान तो मुसलमानों के अलग देश की तरह ही बना था। पहले तीन दशकों में पाकिस्तानी राज्य का चरित्र ‘इस्लामनुमा’ कहा जा सकता है। अल्पसंख्यकों की हैसियत बहुसंख्यकों जैसी नहीं थी, लेकिन उनका सक्रिय उत्पीड़न भी नहीं होता था। लेकिन 1977 से 1988 तक जनरल जिया उल हक के लंबे दौर में देश का तेजी से इस्लामीकरण हुआ। शरीयत कानूनों को लागू किया गया, अल्पसंख्यकों को दबाने के लिए सख्त ईशनिंदा कानून बनाए गए।

अहमदिया जैसे संप्रदायों को गैर इस्लामी घोषित कर दिया गया। पश्चिम एशिया से मिले पैसों की बदौलत वे मदरसे फलने-फूलने लगे, जो कट्टर वहाबी विचारधारा की शिक्षा देते थे। सुन्नी उग्रवादियों ने सबसे पहले हिंदुओं और ईसाइयों को निशाना बनाया। उनकी तादाद कम थी और वे आसानी से दब गए। फिर उन्होंने पाकिस्तान की बड़ी शिया आबादी को निशाने पर लिया। शिया कभी वहां के राजनीतिक व व्यावसायिक प्रभुत्वशाली लोगों में थे, जिन्ना खुद शिया थे। पिछले वर्षों में शिया धार्मिक स्थानों और आबादी पर कई हिंसक हमले हुए हैं। जेहादियों ने मुस्लिम राजनेताओं व बुद्धिजीवियों को भी निशाना बनाया है, जो अल्पसंख्यकों के साथ बराबरी के व्यवहार की मांग करते हैं। विभाजन के बाद पश्चिमी पाकिस्तान के मुकाबले पूर्वी पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी ज्यादा थी। 1950 के दशक में पश्चिम बंगाल में लगातार पूर्वी पाकिस्तान से हिंदुओं का पलायन होता रहा।

1963 में श्रीनगर के हजरतबल से एक कथित चोरी के प्रसंग में पूर्वी पाकिस्तान में हिंदुओं पर हमले हुए। फिर भी बांग्लादेश युद्ध के समय कई लाख हिंदू वहीं थे। अपने जन्म के समय अपनी धर्मनिरपेक्ष संस्कृति के प्रति वह गौरव महसूस करता था। उसने अपना राष्ट्रगीत भी रवींद्रनाथ टैगोर की रचना से चुना था। लेकिन आजादी के चार दशकों में उसका लगातार इस्लामीकरण होता चला गया है, हालांकि वह पाकिस्तान जितना हिंसक नहीं है, फिर भी चकमा पर्वतों के बौद्ध आदिवासियों को अपनी जमीन मुस्लिम आप्रवासियों को देनी पड़ी और वहां के बंगाली हिंदू अब भी भारत की ओर रुख किए हुए हैं। श्रीलंका में राजनीतिक संघर्ष का केंद्र धर्म नहीं, बल्कि भाषा थी। दक्षिण की सिंहल बहुसंख्यक आबादी उत्तर के तमिल अल्पसंख्यकों की तरक्की से डरी हुई थी।

उन्होंने सिंहली को एकमात्र राष्ट्रभाषा बना दिया, जिसका ज्ञान होना अनिवार्य था। इसकी वजह से जो गृहयुद्ध शुरू हुआ, वह चार दशकों तक चला। जब यह संघर्ष बढ़ रहा था, तब सन 1972 में बौद्ध धर्म को श्रीलंका का राष्ट्रीय धर्म बना दिया गया, यह उन तमिल अल्पसंख्यकों के मुंह पर तमाचा था, जो हिंदू, मुसलमान और ईसाई थे, लेकिन बौद्ध नहीं थे। अब धार्मिक वर्चस्ववाद ने भाषिक वर्चस्ववाद का साथ दिया। सिंहली, बौद्ध भिक्षु श्रीलंकाई फौज के भी समर्थक हो गए। सन 2009 में गृहयुद्ध खत्म होने पर बौद्ध भिक्षु राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे के साथ हो गए। पिछले दिनों एक बौद्ध उग्रवादी संगठन ने मुस्लिमों पर हमले किए थे। दूसरी ओर, लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम भी उदार संगठन नहीं था। उसने भी जाफना, मन्नार और अन्य शहरों में मुसलमानों के घरों और मस्जिदों पर हमले किए। ईसाई, तमिल भी उसके अत्याचारों से नहीं बचे। उसने सिंहल बनाम तमिल विवाद को बौद्ध बनाम हिंदू विवाद बना दिया।

भूटान को एक शांत और सुंदर स्थान माना जाता है। जो पर्यटक भूटान के बौद्ध मठों और जंगलों को देखने जाते हैं, उन्हें अक्सर यह नहीं मालूम होता कि 1990 के दशक में भूटान ने अपनी बौद्ध पहचान को मजबूत करने के लिए वहां सदियों से बसे हुए हिंदू परिवारों को नेपाल में धकेल दिया था। 19वीं और 20वीं शताब्दी के दौरान नेपाल खुद एक हिंदू राष्ट्र था। वहां राजा को धरती पर भगवान विष्णु का प्रतिनिधि माना जाता था। राजशाही के खात्मे के बाद नेपाल धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र बन गया। सारे दक्षिण एशियाई देशों में सांप्रदायिक हिंसा के मामले में नेपाल की स्थिति सबसे अच्छी है। वहां मुसलमानों पर हिंसक हमले हुए हैं, लेकिन वहां प्रमुख विवाद आर्थिक, भौगोलिक या सामाजिक रहे हैं, धार्मिक नहीं। आजादी के बाद के अपने इतिहास में सिर्फ भारत और श्रीलंका लगातार लोकतंत्र बना रहा है। अब पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल भी इनमें शामिल हो गए हैं। यहां तक कि राजशाही वाले भूटान में भी अब चुनाव होने लगे हैं।

चुनावी लोकतंत्र की उपलब्धि का यह अर्थ नहीं कि इस क्षेत्र में समानता आ गई है। गरीबी और असमानता का यहां बोलबाला है। उतना ही बुरा भाषा और धर्म के नाम पर भेदभाव है। पाकिस्तान में हिंदू, ईसाई या शिया होना, श्रीलंका में हिंदू या मुस्लिम होना, बांग्लादेश में हिंदू या बौद्ध होना, नेपाल और भारत में मुस्लिम होना मुश्किल ही नहीं कभी-कभी नामुमकिन हो जाता है।
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